۲ آذر ۱۴۰۳ |۲۰ جمادی‌الاول ۱۴۴۶ | Nov 22, 2024
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हौज़ा / जन्नतुल बक़ी मदीना शहर का वह क़ब्रिस्तान है जिसमें पैग़म्बरे अकरम स.ल.व. के अजदाद, अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम, मोमिनीन की माएं, नेक असहाब, ताबेईन और दूसरे बहुत से अहम लोगों की क़ब्रें हैं कि जिन्हें 8 शव्वाल 1344 हिजरी को आले सऊद ने ढ़हा दिया था और अफ़सोस की बात यह है कि यह सब इस्लामी तालीमात के नाम पर किया गया, यह इस्लामी जगत ख़ास कर शिया और सुन्नी फ़िर्क़े से संबंध रखने वाले लोगों की ज़िम्मेदारी है कि इन क़ब्रों की फिर से मरम्मत की ख़ातिर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कोशिश शुरू की जाए।

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,जन्नतुल बक़ी मदीना शहर का वह क़ब्रिस्तान है जिसमें पैग़म्बरे अकरम स.ल.व. के अजदाद, अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम, मोमिनीन की माएं, नेक असहाब, ताबेईन और दूसरे बहुत से अहम लोगों की क़ब्रें हैं कि जिन्हें 8 शव्वाल 1344 हिजरी को आले सऊद ने ढ़हा दिया था और अफ़सोस की बात यह है कि यह सब इस्लामी तालीमात के नाम पर किया गया, यह इस्लामी जगत ख़ास कर शिया और सुन्नी फ़िर्क़े से संबंध रखने वाले लोगों की ज़िम्मेदारी है कि इन क़ब्रों की फिर से मरम्मत की ख़ातिर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कोशिश शुरू की जाए।

ताकि इस रूहानी और मानवी और ऐतिहासिक क़ब्रिस्तान जिसकी अहमियत और फ़ज़ीलत हदीसों की किताबों में मौजूद हैं उसकी हिफ़ाज़त और फिर से तामीर के साथ साथ यहां दफ़्न होने वाली शख़्सियतों की इंसानियत और पूरे समाज के लिए की जाने वाली सेवाओं का थोड़ा हक़ अदा किया जा सके।

8 शव्वाल इतिहास का वह दर्दनाक दिन है जब 1344 हिजरी (सन 1925) हिजरी में वहाबी फ़िर्क़े से संबंध रखने वाले लोगों ने जन्नतुल बक़ी के क़ब्रिस्तान को ढ़हा दिया, यह दिन इस्लामी इतिहास में यौमुल हुज़्न (शोक दिवस) के नाम से मशहूर है यानी वह दिन जब बक़ी के नामी क़ब्रिस्तान को ढ़हा कर मिट्टी में मिला दिया गया।

बक़ी में दफ़्न शख़्सियतें

इतिहासकारों के अनुसार बक़ी वह ज़मीन है जिस में पैग़म्बरे इस्लाम (स) के बाद उनके बेहतरीन सहाबा दफ़्न हुए, साथ ही वहां पैग़म्बरे अकरम (स) की बीवियां, उनके अहलेबैत अलैहिस्सलाम, उनका बेटा इब्राहीम, उनके चचा अब्बास, उनकी फ़ुफ़ी सफ़िया बिन्ते अब्दुल मुत्तलिब और बहुत से ताबेईन दफ़्न हैं, इतिहास के अनुसार धीरे धीरे बक़ी उन मज़ारों में से हो गया जहां हाजी हज करने और अल्लाह के घर की ज़ियारत करने के बाद उस क़ब्रिस्तान की ज़ियारत के लिए तड़पता था।

हदीस में है कि पैग़म्बरे अकरम (स) ने वहां की ज़ियारत करने और वहां दफ़्न होने वालों को सलाम और उनकी मग़फ़ेरत की दुआ की है।

तीन नामों (बक़ी, बक़ीउल फ़ुरक़द, जन्नतुल बक़ी) से मशहूर इस क़ब्रिस्तान का इतिहास, इस्लाम से पहले से संबंधित है लेकिन तारीख़ी किताबें इस पर रौशनी डालने से मजबूर हैं, लेकिन इसके बावजूद जो सच्चाई है वह यह है कि बक़ी, हिजरत के बाद मदीना शहर के मुसलमानों के दफ़्न होने का इकलौता क़ब्रिस्तान था, मदीने के लोग मुसलमानों के आने से पहले अपने मुर्दों को बनी हराम और बनी सालिम नामी क़ब्रिस्तान में दफ़्न किया करते थे।

जन्नतुल बक़ी में 495 हिजरी में आलीशान गुंबद रौज़ा बना हुआ था, हेजाज़ शरीफ़ मक्का के हारने के बाद मोहम्मद इब्ने अब्दुल वहाब की पैरवी करने वालों ने मुक़द्दस हस्तियों की शख़्सियतों की क़ब्रें ढ़हा दीं जिसके बाद इस्लामी जगत में बेचैनी फैल गई,

जब वहाबियों का मक्का और मदीना पर क़ब्ज़ा हो गया तो उन्होंने दीन का व्यापार करना शुरू कर दिया और वह इस तरह कि इस्लामी देशों से जो बड़े बड़े उलमा हज के लिए आते वह इन वहाबियों की तौहीद की दुकान से तौहीद ख़रीदते और उनकी फ़िक़्ह का सौदा मुफ़्त में अपने साथ वापस लेकर जाते थे।

वहाबियत के एजेंडों में से एक यह भी है कि दुनिया भर के विशेषकर इस्लामी देशों के धोखेबाज़ और बिकाऊ लेखकों के क़लम को रियाल और डॉलर के बदले ख़रीद लिया जाए, इसी तरह उन्होंने हज के मौक़े का फ़ायदा उठाया और दुनिया भर के मुसलमानों के साथ जितने भी बड़े बड़े नामवर उलमा आते हैं

यह लोग उनसे संपर्क करते हैं और किसी न किसी तरह से उन्हें ख़रीद लेते हैं और उनके द्वारा अपनी विचारधारा को पूरी दुनिया में फैलाते हैं, जब उनका मुफ़्ती डॉलर और रियाल को देखकर अपना अक़ीदा बदलता है तो उसकी पैरवी करने वाले अपने आप अपना अक़ीदा बदल देते हैं, यही कारण है कि आज आले सऊद की विचारधारा तेज़ी से फैलती जा रही है।

आले सऊद और मोहम्मद इब्ने अब्दुल वहाब के बीच समझौता

मोहम्मद इब्ने अब्दुल वहाब ने 1160 हिजरी में आले सऊद से संबंध रखने वाले दरईया के हाकिम इब्ने सऊद के साथ एक समझौता किया जिसमें तय पाया कि नज्द और उसके आस पास के गांव के इलाक़े आले सऊद के क़ब्ज़े में रहेंगे और मोहम्मद इब्ने अब्दुल वहाब ने उन्हें हुकूमत के टैक्स से ज़ियादा से ज़ियादा हिस्सा देने का वादा किया,
जिसके बदले में इब्ने सऊद, इब्ने वहाब को अपनी विचारधारा फैलाने की पूरी आज़ादी देगा, इब्ने सऊद ने अल्लाह के नाम पर जंग करने के लिए मोहम्मद इब्ने अब्दुल वहाब की बैअत की और कहा कि तौहीद का विरोध करने वालों के विरुध्द जंग करने और जिन बातों का तूने हुक्म दिया है उन सब के लिए तैयार हूं लेकिन इन दो शर्तों पर...

अगर हम तुम्हारा समर्थन करें और तुम्हारा साथ दें और अल्लाह हमें कामयाबी दे तो मुझे इस बात का डर है कि कहीं तुम लोग हमें छोड़ न दो और हमारी जगह किसी और से समझौता न कर लो? मोहम्मद इब्ने अब्दुल वहाब ने ऐसा न करने का वादा किया।

अगर हम दरईया के लोगों पर टैक्स लागू करें तो मुझे डर है कि कहीं तुम उन्हें मना न कर दो? मोहम्मद इब्ने अब्दुल वहाब ने इस शर्त पर भी कहा कि ऐसा नहीं करूंगा।

आले सऊद का ब्रिटेन से समझौता

आले सऊद ने अपनी हुकूमत को बाक़ी रखने के लिए बूढ़े साम्राज्य के साथ एक समझौता किया, 1328 हिजरी में अब्दुल अज़ीज़ इब्ने सऊद ने कुवैत में ब्रिटेन के दूत विलियम से मुलाक़ात शुरू की, तीसरी मुलाक़ात के बाद इब्ने सऊद ने इस्लामी उम्मत की पीठपर वार करते हुए ब्रिटेन के सामने पेशकश रखी कि नज्द और एसा शहर को उस्मानी हुकूमत से छीनने का बेहतरीन मौक़ा यही है,

इस तरह एक घटिया समझौता हुआ कि ब्रिटेन नज्द और एसा में रियाज़ के हाकिम को समर्थन करेगा और सुन्नी उस्मानी हुकूमत की ओर से ज़मीनी और समुद्री हमलों की सूरत में अब्दुल अज़ीज़ की हुकूमत की मदद करेगा और इलाक़े में आले सऊद की हुकूमत के बाक़ी रहने के लिए कोशिश करता रहेगा, अब्दुल अज़ीज़ ने भी ख़ुद के बिके होने का सबूत देते हुए वादा किया कि ब्रिटेन हुकूमत के उच्च अधिकारियों से मशविरे के बिना किसी दूसरी सरकार से बातचीत नहीं करेगा।

अब्दुल्लाह इब्ने अब्दुल अज़ीज़ का किरदार

वहाबियत को ख़ुश करने के लिए अब्दुल्लाह ने मक्का जद्दा और मदीने से इस्लामी इतिहास से जुड़ी चीज़ों को मिटाने की ठान ली, मक्के में मौजूद हज़रत अब्दुल मुत्तलिब, हज़रत अबू तालिब, उम्मुल मोमिनीन हज़रत ख़दीजा (स.अ) के साथ साथ पैग़म्बरे अकरम (स) की विलादत की जगह और हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स.अ) के रौज़े को भी गिरा दिया, बल्कि जितनी भी ज़ियारत की जगहें थीं सबको ढ़हा दिया और सब रौज़ों के गुंबद भी गिरा दिए, इसी तरह जब मदीना को घेरा तो हज़रत हमज़ा की मस्जिद और मदीने से बाहर उनकी क़ब्रों को ढ़हा दिया।

अली वरदी का बयान है कि जन्नतुल बक़ी मदीना में पैग़म्बरे इस्लाम (स) के दौर और उसके बाद क़ब्रिस्तान था जहां पैग़म्बरे अकरम (स) के चचा हज़रत अब्बास, हज़रत उस्मान, पैग़म्बरे अकरम (स) की बीवियां, बहुत सारे सहाबा और ताबेईन के अलावा चार इमामों (इमाम हसन, इमाम सज्जाद, इमाम मोहम्मद बाक़िर, इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिमुस्सलाम) की क़ब्रें थीं और इन चारों इमामों की क़ब्रों पर भी ईरान और इराक़ में बाक़ी इमामों की क़ब्रों की तरह ख़ूबसूरत ज़रीह मौजूद थी जिन्हें वहाबियों ने ढ़हा दिया।

लेकिन हर अक़्लमंद इंसान को यह सोंचना चाहिए कि इसी सऊदी में आज भी ख़ैबर के क़िले के बचे हुए अंश वैसे ही मौजूद हैं और उसकी देख रेख भी होती है और दुनिया भर के यहूदी आकर उसे देखते हैं जिस से साफ़ ज़ाहिर है कि आले सऊद का यहूदियों जो इस्लाम व मुसलमानों के खुले हुए दुश्मन हैं उनसे कितने मधुर संबंध हैं।

कौन नहीं जानता कि पूरी दुनिया में आज मुसलमानों का यही ज़ायोनी यहूदी क़त्लेआम कर रहे हैं उसके बावजूद यह वहाबी उनसे हर तरह के मामलात अंजाम दे रहे हैं, इसलिए उलमा की ज़िम्मेदारी है कि पूरी दुनिया के मुसलमानों का क़त्लेआम करने वाले यहूदी ज़ायोनियों से आले सऊद की दोस्ती का पर्दाफ़ाश करते हुए उनकी मुनाफ़ेक़त को सबके लिए ज़ाहिर करें।

अफ़सोस कि 8 शव्वाल 1344 हिजरी (1925) में आले सऊद ने बनी उमय्या और बनी अब्बास के क़दम से क़दम मिलाते हुए नबी ए करीम (स) के पाक ख़ानदान की क़ब्रों को वीरान कर के उसे खंडर में बदल दिया जिस से उनकी पैग़म्बरे अकरम (स) और उनकी आल से दुश्मनी, उनकी कट्टरता, क्रूरता और हिंसक स्वभाव ज़ाहिर हो चुका है।

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